‘‘आयुर्वेद चिकित्सा में अनुपान की अवधारणा‘‘

 
              ‘‘अनु पश्चात् सह वा पीयते इत्यनुपानम्‘‘।

              अर्थात औषधि या भोज्य पदार्थों के सेवन के साथ या पश्चात् जो द्रव (शीत-उष्ण जल ,दुग्ध, तक्र्र ,स्वरस, क्वाथ ,मद्य, काशी,घृत,तैलादि )पदार्थ पान किया जाता हैं,उसे अनुपान कहते हैं।

                        अगस्त्य जैसे उग्रतया ऋषि द्वारा वातापि नामक राक्षस को खा लेने पर उसको पचाने के लिये अनुपान की आवश्यकता हुयी थी तो हम जैसे सामान्य प्राणियों का भोजन विना अनुपान के कैसे पच सकता हैं निःसन्देह अनुपान के विना भोजन का पचना अत्यन्त कष्टतम कार्य है। जैसे जल में तैल की बुन्द डालने पर तैल शीघ्रता  से जल के चारों ओर फैल जाता हैं,उसी प्रकार औषधि का भी अनुपान के साथ सेवन किये जाने पर औषध शिघ्रता से शरीर में फैलकर अपना प्रभाव डालती हैं।  

                          रोग के अनुसार यदि सही अनुपान के साथ औषधियों का प्रयोग किया जाता हैं तो वह औषधि उक्त अनुपान के कारण अधिक गुणशाली हो जाती हैं। औषधियों एवं आहार को अनुपान के साथ सेवन करने से औषधियॉ शीघ्र ही विलीन होकर सम्पूर्ण शरीर में फैल जाती हैं,और अपना औषध-कर्म करती हैं। रसौषधियॉं एवं मधु प्रायः योगवाही होती हैं, अतः सामान्य चिकित्सा यदि करनी हो और विशेष औषधियॉं उपलब्ध नहीं हो तो योगवाही औषधियों का प्रयोग तत्तद्रोगहर अनुपान के साथ करना चाहियें।
      
अनुपान का गुणः-
        
                अर्थात जो (पान ) आहार के गुणों से विपरीत गुण वाला होता है,वहीं उस अन्न का उचित अनुपान होता हैं और वह अनुपान शरीर की धातुओं का किसी भी प्रकार से विरोधि नहीं होता हैं।

अनुपान के लाभः-
        
                          ‘‘अनुपानं हितं युक्तं तर्पयत्याशु मानवम्।
                           सुख पचति चाहारमायुषे च बलाय च।।‘‘ (च सू 27/326)
  
                                    अर्थात् अनुपान शरीर को तृप्त करता हैं,मन को प्रसन्न करता हैं,शरीर को ऊर्जा देता हैं,शरीर का वृंहण करता हैं,खाए हुये पदार्थों को आमाशय से नीचे की ओंर ले जाता हैं,अन्न को छोटे-छोटे टुकडांे में तोडता हैं,अन्न में मृदुता उत्पन्न करता हैं,भोजन को गीला करता हैं,  भोजन का पाचन करता हैं, भोजन को सुखपूर्वक पचाकर आहार-रस को शीघ्र ही सम्पूर्ण शरीर में फैलने योग्य बनाता हैं। उचित रूप से अनुपान लेने पर मनुष्य तृप्त हो जाता हैं तथा आहार को विना कष्ट के अच्छी तरह पचाता हैं जिससे आयु एवं बल की वृद्धि होती हैं। जो मनुष्य भोजन के किसी भी योग्य समय में अनुपान नहीं करते है, उनका अन्न आमाशय में स्थिर हो जाता है तथा क्लिन्न नहीे होता है जिससे वह अन्न उदर में बाधा उत्पन्न करता है, अतः भोजन के पश्चात् अनुपान अवश्य करना चाहिये।

दोषानुसार अनुपानः-

1 वातज दोषः- स्निग्ध और उष्ण /अम्ल रसों का अनुपान
2 पित्तज दोषः- मधुर और शीत  /शर्करा का अनुपान
3 कफज दोषः- रूक्ष और उष्ण /  मधु मिश्रित ़ित्रफला का अनुपान

अवस्थानुसार अनुपान:-
  •  उपवास,मार्गगमन, ऊॅचे स्वर में बोलना, अधिक मैथुन, लू लगना -दुग्ध। 
  •  दधि,दुग्ध, मद्य,कुछ पिष्टान्न खाने पर -सुखोष्ण जल।
  •  मन्दाग्नि,अनिद्रा,तन्द्रा,शोक,भय,क्लम -मद्य।
  • अधिक मधु पिष्टान्न खाने पर -शीतल जल।
  • तैलपान का अजीर्ण -यूष,अम्लरस एवं काशी।
  • भल्लातक,तुवरक स्नेह पान -शीतल जल।
  • स्नेह पान का अजीर्ण - उष्णोदक। 
  • सर्व स्नेह पान -उष्णोदक।
  • धातुक्षय - मॉंसरस।
  • निद्राक्षय - चीनी मिलाकर खुब गाढा किया हुआ भैंस का दुग्ध ।
  • अधिक खट्टे पदार्थों के खाने से उद्वेजित हुये मनुष्यों को मधुर  पदार्थों का सेवन कराने से वे प्रसन्न हो जाते हैं उसी तरह अधिक मधुर पदार्थों के सेवन से तृप्त हुये मनुष्यों को अम्ल पदार्थों का सेवन कराने से वे प्रसन्न हो जाते हैं।
  • भोजन के पूर्व किया हुआ अनुपान शरीर को दुर्बल करता है। भोजन के मध्य में किया हुआ अनुपान शरीर को उसी अवस्था में स्थिर रखता है एवं भोजन के पश्चात् किया हुआ अनुपान शरीर को पुष्ट करता है।
  • साफ,पवित्र और ताम्र आदि के पात्र में सुरक्षित वर्षा का जल सभी अनुपानों में श्रेष्ठ हैं।



रोगानुसार अनुपान:-

क्र सं श्रोग           अनुपान
1 अतिसार कुटज त्वक् का क्वाथ एवं चूर्ण
2 अपस्मार वचा एवं ब्राह्मी स्वरस
3 अम्लपित्त द्राक्षा
4 अरुचि मातुलुंग निम्बु स्वरस
5 अर्दित माष(उडद) क्वाथ एवं चूर्ण
6 अर्श भल्लातक एवं चित्रक
7 अश्मरी पाषाणभेद,कुलत्थबीज एवं वरुणत्वक्  क्वाथ 
8 आमवात गोमूत्रयुक्त एरण्ड तैल
9 उदररोग विरेचन  द्रव्यों का क्वाथ 
10 उन्माद कौम्भघृत/पुराणघृत
11 उर्ध्वजत्रुगतरोग तीक्ष्णौषधियों का नस्य
12 कार्श्यरोग मॉसरस एवं घृत
13 कास कण्टकारी स्वरस एवं क्वाथ 
14 कुष्ठ खदिरकाष्ठ क्वाथ एवं सारिवा क्वाथ
15 कृमिरोग विडंग चूर्ण
16 क्षय रोग शुद्ध शिलाजीत एवं मॉसरस 
17 गरदोष स्वर्णभस्म
18 गुल्म शिग्रुमूलत्वक क्वाथ
19 ज्वर षडंगपानीय क्वाथ
20 तृष्णा षडंगजल/स्वर्ण निर्वापित जल
21 दाह शीतल द्रव्यों का पान
22 नेत्ररोग त्रिफला क्वाथ,हिम,फाण्ट
23 पाण्डुरोग शुद्ध मण्डूर भस्म/पुनर्नवासव
24 पार्श्वशूल पुष्करमूल क्वाथ
25 प्लीहारोग पिप्पली चूर्ण
26 प्रदर लोध्रत्वक क्वाथ
27 प्रमेह ऑवला के स्वरस, क्वाथ,हिम में हरिद्रा चूर्ण मिलाकर
28 गलरोग मधु मिश्रित त्रिफला क्वाथ
29 मूत्रकृच्छ कुष्माण्ड स्वरस, शतावरी क्वाथ
30 मूर्च्छा शीतवीर्यगुणयुक्त द्रव्यों,ब्राह्मी,षंखपुष्पी का पान
31 मेदोरोग मधुदक
32 वमन लाजमण्ड में मधु मिलाकर
33 वातरक्त गुडूची स्वरस
34 विद्रधि रक्तमोक्षण
35 विषार्त शिरीषवृक्ष त्वक् चूर्ण,फल चूर्ण
36 व्रण गुग्गुलु
37 शूल रोग घृतभृष्ट हिंगु एवं करंन्ज बीजमज्जा मिश्रण
38 श्वास भार्ड्गी,षुण्ठी,कण्टकारी का क्वाथ/त्रिकटु चूर्ण एवं मधु
39 श्वित्र बाकुची फल
40 स्वरभेद पुष्करमूल क्वाथ एवं मधु
41 हिक्का लाक्षारस नस्य
42 वातरोग शुद्ध गुग्गुलु एवं लहसुन
43 रक्तपित्त क्षीर, ईक्षुरस वासा स्वरस
44 पुराण ज्वर शहद मिश्रित पीपर चूर्ण
45 शीत रोग पान के साथ मरिच
46 सन्निपातरोग षहद के साथ आर्द्रक
47 ग्रहणीरोग तक्र
48 राजयक्ष्मा मॉंसरस

अनुपान  के अयोग्यः-   

                        जो व्यक्ति उर्ध्वजत्रुगतवातरोगों से पीडित हो, जिन्हें हिक्का, श्वास, कास रोग हो,जो गीत गाते हो,अत्यधिक बोलते हो,एवं अत्यधिक अध्ययन करने वाले हों तथा उरःक्षत के रोगियों को भोजन के बाद जल का अनुपान नहीं करना चाहियें। ऐसा करने से आहार से प्राप्त स्नेह जो कण्ठ एवं उरः प्रदेश में व्याप्त रहता हैं,वह नष्ट हो जाता हैं परिणामतः रूक्षता की वृद्धि होने से दोषों की और  वृद्धि हो जाती हैं ।

अनुपान  के 
पश्चात् 
कर्मः- 



                        अनुपान करने के पश्चात् मार्ग में चलना, जोर से भाषण देना, पढना, गाना और सोना नहीे चाहिये। ऐसा करने से अनुपान आमाशय को दुषित कर कण्ठ तथा उरःप्रदेष में स्थित होकर लालास्राव, अग्निमांद्य और वमनादि अनेक रोगों को पैदा करता है।







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